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एक ज़मीन अपनी (चित्रा मुद्गल)

एक ज़मीन अपनी स्त्री विमर्श साहित्य में चित्रा मुद्गल द्वारा लिखा गया एक नये तेवर का उपन्यास है। कथावस्तु, बड़े शहरों की चकाचौंध करती दुनिया में अपने वजूद को तलाशती एक मध्यवर्गीय युवती 'अंकिता' के बारे में है । अंकिता विज्ञापन के क्षेत्र में कार्य करने वाली, एक साधारण परिवार की लड़की है जो घर की आर्थिक बदहाली दूर करने और स्थायी नौकरी पाने के लिए संघर्ष कर रही है। अंकिता को अपनी योग्यता के बावजूद, बार-बार उसके स्त्री मात्र होने के कारण उससे समझौता की अपेक्षा की जाती है।
अंकिता भावुक है किन्तु वह कमजोर नही है। वह महानगरीय बाजारवाद की बुराइयों से खुद को दूर रख, अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती है। वह समझौते के लिए तैयार नही होती है, जिसके कारण उसे तरह-तरह की मुश्किलें झेलनी पड़ती है।
उपन्यास में शहरों के उपभोक्तावादी चरित्र, विज्ञापनों के मायावी संसार और स्त्री के प्रति असमान व्यवहार को प्रस्तुत कर बड़े शहरों के खोखलेपन को प्रभावी ढंग से उजागर किया गया है। उपन्यास का एक दूसरा पक्ष नारी-पुरूष संबंधों में तनाव का रेखांकन है। लेखिका, अंकिता के माध्यम से नारी मुक्ति के नए आयामों को कथानक में स्थान देती हैं, जिसमें महिलाएँ स्वतन्त्र और आत्मनिर्भर हैं तथा चुनाव करने में सक्षम हैं।

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मानस प्रसंग (4)

हम रामचरितमानस को धार्मिक दृष्टि से देखने के पक्षपाती हैं इसीलिए इस महाकाव्य के उन असाधारण प्रसंगों का मूल्यांकन नही किया जाता है जो अपनी अंतर्वस्तु में लौकिक और मार्मिकता से संपृक्त हैं। जैसे, तुलसीदास जी ने वाल्मीकि रामायण से आगे बढ़कर मानस में जनक वाटिका के राम-सीता मिलन के प्रसंग का सृजन कर स्वयंवर को शक्तिपरीक्षण के स्थान पर प्रेम-विवाह के मंच के रूप में स्थापित किया। अतः मानस को केवल भक्तिकाव्य के रूप में देखे जाने से उसके बहुत सारे पक्ष गौण हो जाते हैं जो मानवीय दृष्टि से हमारे लिए प्रतिमान हैं, जिसमे एकनिष्ठ प्रेम के आदर्श हैं, अपने जीवनसाथी से बिछुड़ने की पीड़ा है, उसके लिए किसी भी सीमा को लांघ जाने का साहस है। तुलसीदासजी ने मानस रचना की प्रक्रिया में अपने काल का अतिक्रमण कर ऐसी प्रगतिशील समन्वयवादी दृष्टि को साधा जिसके कारण किसी भी विचारधारा के आलोचक उन्हें ख़ारिज करने का साहस नही कर सके। आज के मानस प्रसंग की कड़ी में लंकाकाण्ड के पृष्ठों से उद्घाटित सीता-त्रिजटा संवाद का यह अंश भी ऐसा ही अद्भुत कोटि का प्रसंग है जिसे पहली बार पढ़कर आप भी आश्चर्यचकित हो उठेंगे।  लंकाकाण

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‘पचपन खंभे लाल दीवारें', हिंदी साहित्य में नवलेखन के दौर की बहुचर्चित लेखिका उषा प्रियम्वदा का प्रथम उपन्यास है। उपन्यास की मुख्य चरित्र 'सुषमा' एक मध्यवर्गीय परिवार की अविवाहित युवती है। वह अपने घर की नाजुक आर्थिक परिस्थितियों की वजह से घर से दूर हॉस्टल में रहते हुए कॉलेज की नौकरी कर रही है। सुषमा अपने परिवार की जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए, यौवनावस्था का अतिक्रमण कर कब तैंतीस वर्ष की हो जाती है उसे स्वयं भी पता नहीं चल पाता है। सुषमा अकेली है, वह अपना अकेलापन बांटने के लिए एक जीवन साथी के साहचर्य की आकांक्षा को मन ही मन साकार करने के स्वप्न देखती है। लेकिन अपने दायित्वों के बोझ तले वह इतना दबी है कि विवाह के बारे में सोचने में भी वह एक तरह का अपराधबोध महसूस करती है।  सुषमा अपने से कम उम्र के नील से प्रेम करती है। नील उसे पसंद करता है, उसकी देखभाल करता है और हर दृष्टि से उसके जीवन मे व्याप्त सूनेपन को दूर करने में उसका हमसफर बन सकता है लेकिन, सुषमा सामाजिक मर्यादाओं के उल्लंघन और भाई-बहन के भविष्य की चिंता के दुष्चक्र में इतने गहरे धंस चुकी है कि उसे जीवन मे अपने नि

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