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Showing posts from 2020

कलगी बाजरे की : अज्ञेय

अज्ञेय उन थोड़े से साहित्यकारों में से हैं जिन्होंने अपने सृजनात्मकता का प्रयोग कर एक नए युग का सूत्रपात किया। उन्होंने बने-बनाये रास्तों पर चलने के स्थान पर अपनी राह स्वयं चुनी और परम्पराओं से बहुत कुछ लिया तो बहुत कुछ जोड़ा भी। उन्होंने जिस भी विधा को स्पर्श किया, चाहे वह कविता हो, निबंध हो या उपन्यास, उसमे मौलिकता का सृजन किया और बिल्कुल नए प्रतिमान स्थापित किये। ऐसे विलक्षण प्रतिभा के धनी अज्ञेय ने जब कविता में प्रेम को अभिव्यक्त किया तब "कलगी बाजरे की" जैसी असाधारण रचना सामने आई । अज्ञेय ने जड़ हो चुके उपमानों के प्रति विद्रोह छेड़ दिया था और उनकी कविता "कलगी बाजरे की" तो प्रयोगवाद की बदली हुई काव्यदृष्टि का घोषणा पत्र है। आज उनके जन्मदिन के अवसर पर #मसि_कागद पर इसी कविता की प्रस्तुति एक सरल व्याख्या के साथ... ■ अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका अब नहीं कहता, या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई, टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है या कि मेरा प्यार मैला है। ■ अज्ञेय प्रेमिका से कहते हैं-  यदि

मानस प्रसंग (4)

हम रामचरितमानस को धार्मिक दृष्टि से देखने के पक्षपाती हैं इसीलिए इस महाकाव्य के उन असाधारण प्रसंगों का मूल्यांकन नही किया जाता है जो अपनी अंतर्वस्तु में लौकिक और मार्मिकता से संपृक्त हैं। जैसे, तुलसीदास जी ने वाल्मीकि रामायण से आगे बढ़कर मानस में जनक वाटिका के राम-सीता मिलन के प्रसंग का सृजन कर स्वयंवर को शक्तिपरीक्षण के स्थान पर प्रेम-विवाह के मंच के रूप में स्थापित किया। अतः मानस को केवल भक्तिकाव्य के रूप में देखे जाने से उसके बहुत सारे पक्ष गौण हो जाते हैं जो मानवीय दृष्टि से हमारे लिए प्रतिमान हैं, जिसमे एकनिष्ठ प्रेम के आदर्श हैं, अपने जीवनसाथी से बिछुड़ने की पीड़ा है, उसके लिए किसी भी सीमा को लांघ जाने का साहस है। तुलसीदासजी ने मानस रचना की प्रक्रिया में अपने काल का अतिक्रमण कर ऐसी प्रगतिशील समन्वयवादी दृष्टि को साधा जिसके कारण किसी भी विचारधारा के आलोचक उन्हें ख़ारिज करने का साहस नही कर सके। आज के मानस प्रसंग की कड़ी में लंकाकाण्ड के पृष्ठों से उद्घाटित सीता-त्रिजटा संवाद का यह अंश भी ऐसा ही अद्भुत कोटि का प्रसंग है जिसे पहली बार पढ़कर आप भी आश्चर्यचकित हो उठेंगे।  लंकाकाण

कालचक्र

जलधि समीर आकाश अनल है कौन भला समय से प्रबल रेत की तरह फिसलता जीवन शिशु, किशोर, युवा, मरणासन्न कभी दुर्लघ्य तो कभी सुखमय है समय भी कितना रहस्यमय है धन, यश, प्रेम, और सम्मान सर्वस्व पाने का कर अनुमान गिरते, संभलते, ठोकर खाते जब हम इस संसार मे आते कितना कुछ भर लेने की चाह में भटक जाते मृगतृष्णा की राह में कालचक्र की गति न टूटी रह जाती अभिलाषाएं छुटी जो चाहा उसको पा न सके जो पाया उसे अपना न सके भुला देने को उसे जिसे कभी खोया था क्षमा मांगने उससे जो हमारी वजह से रोया था समय नही देता हमे एक कतरा उधार का पीना ही होता है अन्ततः विष स्वीकार का मनुष्य अपने कंधों पर कितने बोझ लिए जीता है वक्त भी नही शायद ~हर जख्मों को सीता है~ सुयश मिश्रा (सजल)

मानस प्रसंग (3)

महाकाल की बरात  जिस वर को पाने के लिए भवानी कठोर तपस्या कर रहीं हैं वह स्वयं समाधि में बैठे हुए हैं। एक दामाद के रूप में त्रिपुरारी की कल्पना करके उमा का परिवार, विशेषकर माता, अत्यंत दुःखी है। क्योंकि नारदजी कह गए कि  योगी, जटाधारी, निष्कामहृदय, नंगा और अमङ्गल वेषवाला, ऐसा पति इसको मिलेगा। इसके हाथ में ऐसी ही रेखा पड़ी है। और नारद के वचन कभी मिथ्या नही होते।  संसार में जिनका कोई नही उन अनाथों के नाथ तो स्वयं शिव है लेकिन शिव का कौन है? वैरागी शिव को विवाह के लिए कौन मनाएगा? समाज में ऐसे एकाकी लोगों का एक बेस्ट फ्रेंड होता है जो इन सब मामलों में माता-पिता या परिवार की भूमिका निभाता है। हर के विवाह में यह रोल स्वयं हरि निभा रहे हैं। उन्होंने शिव को समाधि से जगाया और उनसे यह वरदान लिया कि शिव उमा से विवाह जरूर करेंगें। ध्यान देने योग्य बात है कि ईश्वर किसी की साधना से प्रसन्न होकर वर देते हैं लेकिन महाकाल के सामने प्रकट होकर नारायण स्वयं वर मांग रहे है हैं। ऐसे औढरदानी है शिव, विवाह के लिए तैयार हो गए। अब नारायण अपने प्रिय मित्र के विवाह में पूरा आनंद लेने का मन बना चुकें हैं । महाकाल

भस्मासुर

अपनी ही दुनिया में पैठे हुए मैट्रो में बैठे हुए कानों को हेडफ़ोन से झाँपकर बगल वाले से दूरियाँ नापकर हम सुन रहे संगीत उस असफलता का जिसमें घिर गया है मनुष्य एक श्रेष्ठताबोध से या  किसी कुंठाजनित अवरोध से। फेसबुक खोल कर तेजी से स्क्रॉल कर देख रहें उस खबर पर प्रतिक्रिया क्या है। हमने और किया क्या है? आशंकाओं से डर-डर कर दृष्टि जाती प्रत्येक खबर पर। कोई घबराए, डर जाए,  रोते हुए अपने घर जाए या मर जाए, हम तठस्थ। काम में व्यस्त अपनी उपलब्धियों पर खुश ये मनहूस  हमारी भस्मासुरी अहंकारी सोच  जला कर राख कर देती है उस एक संवेदना को  जो दूसरों में भी जिजीविषा से भरा अपने जैसा ही एक मनुष्य देख सके।

मानस प्रसंग (2)

निर्वासित राजकुमार दुर्गम वनों में अपनी स्त्री की तलाश में दर-दर ठोकरें खाते हुए अनुज सहित भटक रहे हैं। तभी मरणासन्न जटायु उन्हें सीता की सूचना देते हैं कि किस प्रकार लंका का अधिपति उन्हें बलपूर्वक हरण कर ले जा रहा था। निश्चित ही यह सूचना राम के लिये वज्रपात के समान रही होगी। किंतु राम वह मनुष्य है जिनकी प्रतिष्ठा पूरी मानवजाति के लिये एक प्रतिमान गढ़ने वाली है। राम यह जानते हैं कि उनकी एक-एक प्रतिक्रिया सभी निर्बल, असहाय लोगों के लिए जीवन की कठिनाइयों में मार्ग प्रशस्त करने वाले उदाहरण बन कर दुहराए जाएंगे। तब प्राण त्यागते हुए जटायु के सामने मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम एक संकल्प लेते हैं:  सीता हरन तात जनि  कहहु पिता सन जाइ ।  जौं मैं राम त कुल सहित  कहिहि दसानन आइ ।⁠।⁠ 【हे तात! सीताहरणकी बात आप जाकर पिताजीसे न कहियेगा। यदि मैं राम हूँ तो दशमुख रावण कुटुम्बसहित वहाँ आकर स्वयं ही कहेगा।】 ध्यान देने योग्य बात है कि जिस समय राम ने यह संकल्प लिया उस समय न तो उनके सामने वानरों की कोई सेना थी और न ही महापराक्रमी हनुमान जैसा कोई सहायक; था तो केवल यह आत्मविश्वास कि यदि मैं सच में &qu