अज्ञेय उन थोड़े से साहित्यकारों में से हैं जिन्होंने अपने सृजनात्मकता का प्रयोग कर एक नए युग का सूत्रपात किया। उन्होंने बने-बनाये रास्तों पर चलने के स्थान पर अपनी राह स्वयं चुनी और परम्पराओं से बहुत कुछ लिया तो बहुत कुछ जोड़ा भी। उन्होंने जिस भी विधा को स्पर्श किया, चाहे वह कविता हो, निबंध हो या उपन्यास, उसमे मौलिकता का सृजन किया और बिल्कुल नए प्रतिमान स्थापित किये। ऐसे विलक्षण प्रतिभा के धनी अज्ञेय ने जब कविता में प्रेम को अभिव्यक्त किया तब "कलगी बाजरे की" जैसी असाधारण रचना सामने आई । अज्ञेय ने जड़ हो चुके उपमानों के प्रति विद्रोह छेड़ दिया था और उनकी कविता "कलगी बाजरे की" तो प्रयोगवाद की बदली हुई काव्यदृष्टि का घोषणा पत्र है। आज उनके जन्मदिन के अवसर पर #मसि_कागद पर इसी कविता की प्रस्तुति एक सरल व्याख्या के साथ... ■ अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका अब नहीं कहता, या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई, टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है या कि मेरा प्यार मैला है। ■ अज्ञेय प्रेमिका से कहते हैं- यदि
धर्म और साहित्य, थोड़ा दर्शन और थोड़ा मनोविज्ञान