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Showing posts from March, 2020

कलगी बाजरे की : अज्ञेय

अज्ञेय उन थोड़े से साहित्यकारों में से हैं जिन्होंने अपने सृजनात्मकता का प्रयोग कर एक नए युग का सूत्रपात किया। उन्होंने बने-बनाये रास्तों पर चलने के स्थान पर अपनी राह स्वयं चुनी और परम्पराओं से बहुत कुछ लिया तो बहुत कुछ जोड़ा भी। उन्होंने जिस भी विधा को स्पर्श किया, चाहे वह कविता हो, निबंध हो या उपन्यास, उसमे मौलिकता का सृजन किया और बिल्कुल नए प्रतिमान स्थापित किये। ऐसे विलक्षण प्रतिभा के धनी अज्ञेय ने जब कविता में प्रेम को अभिव्यक्त किया तब "कलगी बाजरे की" जैसी असाधारण रचना सामने आई । अज्ञेय ने जड़ हो चुके उपमानों के प्रति विद्रोह छेड़ दिया था और उनकी कविता "कलगी बाजरे की" तो प्रयोगवाद की बदली हुई काव्यदृष्टि का घोषणा पत्र है। आज उनके जन्मदिन के अवसर पर #मसि_कागद पर इसी कविता की प्रस्तुति एक सरल व्याख्या के साथ... ■ अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका अब नहीं कहता, या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई, टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है या कि मेरा प्यार मैला है। ■ अज्ञेय प्रेमिका से कहते हैं-  यदि

मानस प्रसंग (4)

हम रामचरितमानस को धार्मिक दृष्टि से देखने के पक्षपाती हैं इसीलिए इस महाकाव्य के उन असाधारण प्रसंगों का मूल्यांकन नही किया जाता है जो अपनी अंतर्वस्तु में लौकिक और मार्मिकता से संपृक्त हैं। जैसे, तुलसीदास जी ने वाल्मीकि रामायण से आगे बढ़कर मानस में जनक वाटिका के राम-सीता मिलन के प्रसंग का सृजन कर स्वयंवर को शक्तिपरीक्षण के स्थान पर प्रेम-विवाह के मंच के रूप में स्थापित किया। अतः मानस को केवल भक्तिकाव्य के रूप में देखे जाने से उसके बहुत सारे पक्ष गौण हो जाते हैं जो मानवीय दृष्टि से हमारे लिए प्रतिमान हैं, जिसमे एकनिष्ठ प्रेम के आदर्श हैं, अपने जीवनसाथी से बिछुड़ने की पीड़ा है, उसके लिए किसी भी सीमा को लांघ जाने का साहस है। तुलसीदासजी ने मानस रचना की प्रक्रिया में अपने काल का अतिक्रमण कर ऐसी प्रगतिशील समन्वयवादी दृष्टि को साधा जिसके कारण किसी भी विचारधारा के आलोचक उन्हें ख़ारिज करने का साहस नही कर सके। आज के मानस प्रसंग की कड़ी में लंकाकाण्ड के पृष्ठों से उद्घाटित सीता-त्रिजटा संवाद का यह अंश भी ऐसा ही अद्भुत कोटि का प्रसंग है जिसे पहली बार पढ़कर आप भी आश्चर्यचकित हो उठेंगे।  लंकाकाण