छिन्नमस्ता, भारतीय समाज में स्त्री की वैयक्तिकता के दमन को पूरी नग्नता के साथ उभारने वाला जीवंत दस्तावेज है। लेखिका प्रभा खेतान ने इस उपन्यास में मारवाड़ी समाज और केंद्रीय पात्र 'प्रिया' के जीवन को आधार बना कर, नारी जाति के कोमल पक्षों को निर्ममता के साथ कुचले जाने का यथार्थ चित्रण किया है। प्रिया अपने परिवार की अनचाही संतान है जो तिरस्कार और शुष्कता के वातावरण में बड़ी हुई है और अपने घर में ही बालात्कार जैसी भयानक त्रासदी झेल चुकी है। परिपक्व होने से पहले ही उसका व्यक्तित्व शून्यता से भर गया है। उसका विवाह दूसरी पत्नी के रूप में नरेंद्र से कर दी जाती है जो पितृसत्तात्मक मानसिकता का ही विद्रूप चेहरा है। नरेंद्र स्त्री को संपत्ति और भोग की वस्तु से ज्यादा कुछ नही समझता है। इस प्रकार प्रिया ससुराल में भी निरंतर प्रताड़ना का शिकार होती है। प्रिया समस्त यातनाओं को भोगते हुए भी अपने अस्तित्व को बिखरने से रोकना चाहती है। अपने स्व को बचाने के लिए तथा अपनी पहचान को गढ़ने के लिए वह संघर्ष करती है और सामना करती है उस रूढ़िगत मानसकिता का, जो औरत को मनुष्य तक मानने के लिए तैयार नही है। लेखिका ने माता छिन्नमस्तिका के प्रतीक के द्वारा, प्रिया के आत्मसंघर्ष और नारी मुक्ति की स्थापना का प्रयत्न किया है। यह उपन्यास स्त्री के प्रति पुरुषवादी सोच और पितृसत्तात्मक शोषण के ढांचे का यथार्थ चित्रण करते हुए बहुविवाह जैसे सामाजिक कुरीतियों और सभ्य समाजों में पर्दों के भीतर नारी के साथ होने वाले अत्याचारों का एक ऐसा दस्तावेज है जो हमे सोचने पर मजबूर कर देता है।
हम रामचरितमानस को धार्मिक दृष्टि से देखने के पक्षपाती हैं इसीलिए इस महाकाव्य के उन असाधारण प्रसंगों का मूल्यांकन नही किया जाता है जो अपनी अंतर्वस्तु में लौकिक और मार्मिकता से संपृक्त हैं। जैसे, तुलसीदास जी ने वाल्मीकि रामायण से आगे बढ़कर मानस में जनक वाटिका के राम-सीता मिलन के प्रसंग का सृजन कर स्वयंवर को शक्तिपरीक्षण के स्थान पर प्रेम-विवाह के मंच के रूप में स्थापित किया। अतः मानस को केवल भक्तिकाव्य के रूप में देखे जाने से उसके बहुत सारे पक्ष गौण हो जाते हैं जो मानवीय दृष्टि से हमारे लिए प्रतिमान हैं, जिसमे एकनिष्ठ प्रेम के आदर्श हैं, अपने जीवनसाथी से बिछुड़ने की पीड़ा है, उसके लिए किसी भी सीमा को लांघ जाने का साहस है। तुलसीदासजी ने मानस रचना की प्रक्रिया में अपने काल का अतिक्रमण कर ऐसी प्रगतिशील समन्वयवादी दृष्टि को साधा जिसके कारण किसी भी विचारधारा के आलोचक उन्हें ख़ारिज करने का साहस नही कर सके। आज के मानस प्रसंग की कड़ी में लंकाकाण्ड के पृष्ठों से उद्घाटित सीता-त्रिजटा संवाद का यह अंश भी ऐसा ही अद्भुत कोटि का प्रसंग है जिसे पहली बार पढ़कर आप भी आश्चर्यचकित हो उठेंगे। लंकाकाण
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