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Showing posts from December, 2019

दुर्वाचल (अज्ञेय)

आइये आज एक यायावर की आँखों से प्रकृति को देखते हैं। अज्ञेय अपनी प्रयोगशीलता के लिये सुविख्यात हैं। वे जितना महत्व भाषा को देते हैं उतना ही महत्व शब्दों की मितव्ययिता को भी देते हैं। उनका मानना है कि रचना में एक भी शब्द व्यर्थ में शामिल न हो। कम शब्दों में भी बड़ा अर्थ भरने की विशेषता उन्हें आधुनिक कवि और उससे भी ज्यादा सजग कवि के रूप में स्थापित करती है। उनकी इसी विशेषता को ध्यान में रखते हुए हम उनकी कविता 'दुर्वाचल' का विश्लेषण करेंगें। हमारा यात्री (अज्ञेय) एक ऐसे पर्वतीय स्थल पर है जिस गिरि का पार्श्व नम्र है, कोमल है। कोमलता का पर्वतों के साथ संयोग अज्ञेय जैसा सजग यात्री ही कर सकता है। यहाँ चीड़ के वृक्षों की ऊपर जाती पंक्ति ऐसी लग रही है मानो उमंगें डगर चढ़ रही हो। नीचे की ओर बिछी नदी (बहती नही) अर्थात एक ठहराव है और यह ठहराव गतिहीनता की सूचक नही बल्कि एक शांति का प्रतीक है।  और फिर अद्भुत बिम्ब का प्रयोग - नदी ऐसी लग रही है मानो एक 'दर्द की रेखा' खिंची हो, जैसे दर्द ने मूर्त रूप धारण कर लिया हो। इसे कहते हैं थोड़े से शब्दों में बड़ा अर्थ भरना।

मानस प्रसंग (1)

सुनत श्रवन बारिधि बंधाना।  दस मुख बोलि उठा अकुलाना।⁠। बाँध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिंधु बारीस । सत्य तोयनिधि कंपति उदधि पयोधि नदीस ।⁠। रावण का पूरा स्टेटस डर की बुनियाद पर खड़ा था। जब रावण को मन्दोदरी ने समझाया कि सीता को वापस भेज कर अपने प्राण बचवा लो तब बड़े अभिमान के साथ रावण कहता है "जिनके प्राण बेचारे समुद्र के बीच में आ जाने की वजह से मुझसे बचे हुए हैं, उनसे मेरी स्त्री भय खा रही है, बड़ी हँसी की बात है।"  कुछ लोग इसी तरह के फेक कॉन्फिडेंस से माहौल बना के रखते हैं भले ही अंदर से दिल मारे डर के कांप रहा हो। रावण का आत्मविश्वास कितना नकली था यह इस बात से पता चल जाता है जब उसी बेचारे समुद्र पर सेतु का बाँधा जाना कानों से सुनते ही रावण घबड़ाकर दसों मुखोंसे बोल उठा------ वननिधि, नीरनिधि,  जलधि,  सिंधु,  वारीश,  तोयनिधि,  कंपति,  उदधि,  पयोधि,  नदीश को क्या सचमुच ही बाँध लिया? पूरे रामचरितमानस में रावण के मुख से निकले कौतुक भरे ये शब्द अलग ही लेवल के हैं। डर का आलम यह है कि दसों मुखों से दस अलग-अलग सम्बोधन निकलते हैं। रावण समझ

लौट चलो

सुनो अवनी की उन  कातर चीत्कारों को, जो मांग रही हमसे क्षमा अपने नैसर्गिक प्रेम को बांटने के अपराध में। सुनो विलाप करती हुई उस धरती का लोमहर्षक रुदन, जो दे रही हमे चेतावनी। मनुष्य! रोक दो अपनी क्षुधातुर एषणा के रथ को अन्यथा सूख जाएंगे सरिता के स्त्रोत और बुझ जाएगी प्यास  सदा के लिए। मिट जाएगा हवा और  जहर का भेद। फूल से कुम्हला जाएंगे  बच्चों के फेफड़ें। जीवन गर्भ में आते ही  दम तोड़ देगा। मर जाएंगे पर्वत,  सड़ जाएगा समुद्र और मिटा देगा दावानल  जंगलों को सदा के लिए। मढ़ा जाएगा असंख्य जीवहत्या  का पाप तुम्हारे सर और  मुक्त नही होगा मनुष्य इस  महापातक से कल्पों तक। पिघला दो सभी गाड़ियों का लोहा और भर दो ज्वालामुखी की दरारों में। इकट्ठा करके प्लास्टिक के पहाड़ चुनवा दो उसे पत्थर की दीवार से। झोंक दो वे सारे उपकरण, जो तुम्हें देते हैं आनंद  सुलगती हुई धरती की कीमत पर। बंद कर दो फैक्ट्रीयां और उनमें बनने वाले रसायन, इस हलाहल को नदियां 

पूर्णेन्दु के जन्मदिवस पर

राजनगर की तबाही से राग दरबारी तक। बीएससी साइकल से  सरकारी गाड़ी तक।। एरिटोप जेल से  पतंजलि एलोवेरा तक। अंतहीन बातों में गुजरे रात से सवेरा तक।। बिन बुलाई शादियों में घुस कर दावत खाने तक। जोड़-जोड़ कर चार पैसे कॉण्ट्रा खेलने जाने तक।। ग्राफिक्स वर्ल्ड के स्लो इंटरनेट में लोड होते पेज तक। बेफिक्री वाले बचपने से संघर्षों वाले ऐज तक।। हँसी के ठहाकों में दबी  बेचैनी की आहों तक। चिंता के बादल में डूबी नम होती निगाहों तक।।   गिरते-संभलते ठोकर खाते मंजिल को पाने तक। बीते हुए कल से लेकर आने वाले जमाने तक।। ~ जन्मदिन मुबारक रहेगा ~