"न दिन होता है अब न रात होती है सभी कुछ रुक गया है वो क्या मौसम का झौंका था जो इस दिवार पर लटकी हुई तस्वीर तिरछी कर गया है" आज बात एक ऐसी फिल्म की जो न केवल मध्यवर्गीय जीवन की पीड़ा को रेखांकित कर उसके अंतर्द्वंद्व को उघार देती है, बल्कि उसके भीतर के उस महान हृदय को भी स्पर्श करती है जो अपनी लघुता में भी त्याग को, अभाव में भी समर्पण को और असफलता में भी प्रेम को अपनी सबसे बड़ी निधि समझता हैं। "रेनकोट" एक असफल प्रेम के साथ - साथ एक निष्फल जीवन की भी घुटन भरी मार्मिक गाथा है। मनोज, जो जीवन के प्रत्येक मोर्चे पर हारने के बाद अपने आत्मसम्मान की लाश को कन्धे पर लाद कर अपने पुराने मित्रों के आगे हाथ फैला कर मदद माँगने को भागलपुर से कलकत्ता के लिए निकल पड़ा है ताकि अपनी बहन की शादी के लिए पैसे जुटा सके। कलकत्ता में वह अपने हितैषी और मित्र आलोक के घर पर रुक कर अत्यंत संकोच के साथ आगे की योजना बनाता है और बाथरूम में शेव करते हुए अपने हालात पर टूटकर रो पड़ता है। इन कातर सिसकियों की आहट सुनाई देती है आलोक की पत्नी शीला को। शीला, जो सबकुछ होने के बावजूद उस एक अभाव के सूनेपन में
SILENT HIND
धर्म और साहित्य, थोड़ा दर्शन और थोड़ा मनोविज्ञान