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  "न दिन होता है अब न रात होती है सभी कुछ रुक गया है वो क्या मौसम का झौंका था जो इस दिवार पर लटकी हुई तस्वीर तिरछी कर गया है" आज बात एक ऐसी फिल्म की जो न केवल मध्यवर्गीय जीवन की पीड़ा को रेखांकित कर उसके अंतर्द्वंद्व को उघार देती है, बल्कि उसके भीतर के उस महान हृदय को भी स्पर्श करती है जो अपनी लघुता में भी त्याग को, अभाव में भी समर्पण को और असफलता में भी प्रेम को अपनी सबसे बड़ी निधि समझता हैं। "रेनकोट" एक असफल प्रेम के साथ - साथ एक निष्फल जीवन की भी घुटन भरी मार्मिक गाथा है। मनोज, जो जीवन के प्रत्येक मोर्चे पर हारने के बाद अपने आत्मसम्मान की लाश को कन्धे पर लाद कर अपने पुराने मित्रों के आगे हाथ फैला कर मदद माँगने को भागलपुर से कलकत्ता के लिए निकल पड़ा है ताकि अपनी बहन की शादी के लिए पैसे जुटा सके। कलकत्ता में वह अपने हितैषी और मित्र आलोक के घर पर रुक कर अत्यंत संकोच के साथ आगे की योजना बनाता है और बाथरूम में शेव करते हुए अपने हालात पर टूटकर रो पड़ता है। इन कातर सिसकियों की आहट सुनाई देती है आलोक की पत्नी शीला को। शीला, जो सबकुछ होने के बावजूद उस एक अभाव के सूनेपन में

The Kashmir Files

भर्तृहरि नीतिशतकम में लिखते हैं :  "हिरण, मछली और सज्जन को मात्र घास, पानी और शांति की आवश्यकता होती है, परन्तु फिर भी इस संसार में अकारण ही उनके शत्रु  क्रमशः शिकारी , मछुआरे तथा दुष्ट लोग होते हैं।" कश्मीरी पंडितों को मारा नही गया बल्कि उनका शिकार किया गया। यह कोई लड़ाई नही थी बल्कि आतताइयों के द्वारा निर्दोषों पर घात लगाकर किया गया हमला था। यह उस पराजित मानसिकता के द्वारा किया गया सुनियोजित रक्तपात था जो स्वयं कुछ निर्मित नही कर सकने की कुंठा में सब कुछ मिटा कर विध्वंस करने में यकीन रखती है। 14वीं सदी में सिकंदर बुतशिकन इस मानसिकता का प्रस्थान बिंदु था और 1990 पुनरावृत्ति।  कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है यह हम मानते आये हैं लेकिन इस आंगिक एकता का आधार क्या है, यह TKF देख कर पता चलता है। वह आधार है कश्मीर में भारतीय सभ्यता के एक नए अध्याय का सूत्रपात करने वाले कश्मीरी हिन्दू और बौद्ध, जिन्होंने कश्मीर की सांस्कृतिक लौ को अपने तेज, तप और त्याग की अग्नि से इस प्रकार प्रज्वलित किया कि वह cradle of civilization की उपाधि से सुशोभित हुआ। लेकिन फिर कश्मीर को जन्नत बनाने व

कलगी बाजरे की : अज्ञेय

अज्ञेय उन थोड़े से साहित्यकारों में से हैं जिन्होंने अपने सृजनात्मकता का प्रयोग कर एक नए युग का सूत्रपात किया। उन्होंने बने-बनाये रास्तों पर चलने के स्थान पर अपनी राह स्वयं चुनी और परम्पराओं से बहुत कुछ लिया तो बहुत कुछ जोड़ा भी। उन्होंने जिस भी विधा को स्पर्श किया, चाहे वह कविता हो, निबंध हो या उपन्यास, उसमे मौलिकता का सृजन किया और बिल्कुल नए प्रतिमान स्थापित किये। ऐसे विलक्षण प्रतिभा के धनी अज्ञेय ने जब कविता में प्रेम को अभिव्यक्त किया तब "कलगी बाजरे की" जैसी असाधारण रचना सामने आई । अज्ञेय ने जड़ हो चुके उपमानों के प्रति विद्रोह छेड़ दिया था और उनकी कविता "कलगी बाजरे की" तो प्रयोगवाद की बदली हुई काव्यदृष्टि का घोषणा पत्र है। आज उनके जन्मदिन के अवसर पर #मसि_कागद पर इसी कविता की प्रस्तुति एक सरल व्याख्या के साथ... ■ अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका अब नहीं कहता, या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई, टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है या कि मेरा प्यार मैला है। ■ अज्ञेय प्रेमिका से कहते हैं-  यदि

मानस प्रसंग (4)

हम रामचरितमानस को धार्मिक दृष्टि से देखने के पक्षपाती हैं इसीलिए इस महाकाव्य के उन असाधारण प्रसंगों का मूल्यांकन नही किया जाता है जो अपनी अंतर्वस्तु में लौकिक और मार्मिकता से संपृक्त हैं। जैसे, तुलसीदास जी ने वाल्मीकि रामायण से आगे बढ़कर मानस में जनक वाटिका के राम-सीता मिलन के प्रसंग का सृजन कर स्वयंवर को शक्तिपरीक्षण के स्थान पर प्रेम-विवाह के मंच के रूप में स्थापित किया। अतः मानस को केवल भक्तिकाव्य के रूप में देखे जाने से उसके बहुत सारे पक्ष गौण हो जाते हैं जो मानवीय दृष्टि से हमारे लिए प्रतिमान हैं, जिसमे एकनिष्ठ प्रेम के आदर्श हैं, अपने जीवनसाथी से बिछुड़ने की पीड़ा है, उसके लिए किसी भी सीमा को लांघ जाने का साहस है। तुलसीदासजी ने मानस रचना की प्रक्रिया में अपने काल का अतिक्रमण कर ऐसी प्रगतिशील समन्वयवादी दृष्टि को साधा जिसके कारण किसी भी विचारधारा के आलोचक उन्हें ख़ारिज करने का साहस नही कर सके। आज के मानस प्रसंग की कड़ी में लंकाकाण्ड के पृष्ठों से उद्घाटित सीता-त्रिजटा संवाद का यह अंश भी ऐसा ही अद्भुत कोटि का प्रसंग है जिसे पहली बार पढ़कर आप भी आश्चर्यचकित हो उठेंगे।  लंकाकाण

कालचक्र

जलधि समीर आकाश अनल है कौन भला समय से प्रबल रेत की तरह फिसलता जीवन शिशु, किशोर, युवा, मरणासन्न कभी दुर्लघ्य तो कभी सुखमय है समय भी कितना रहस्यमय है धन, यश, प्रेम, और सम्मान सर्वस्व पाने का कर अनुमान गिरते, संभलते, ठोकर खाते जब हम इस संसार मे आते कितना कुछ भर लेने की चाह में भटक जाते मृगतृष्णा की राह में कालचक्र की गति न टूटी रह जाती अभिलाषाएं छुटी जो चाहा उसको पा न सके जो पाया उसे अपना न सके भुला देने को उसे जिसे कभी खोया था क्षमा मांगने उससे जो हमारी वजह से रोया था समय नही देता हमे एक कतरा उधार का पीना ही होता है अन्ततः विष स्वीकार का मनुष्य अपने कंधों पर कितने बोझ लिए जीता है वक्त भी नही शायद ~हर जख्मों को सीता है~ सुयश मिश्रा (सजल)

मानस प्रसंग (3)

महाकाल की बरात  जिस वर को पाने के लिए भवानी कठोर तपस्या कर रहीं हैं वह स्वयं समाधि में बैठे हुए हैं। एक दामाद के रूप में त्रिपुरारी की कल्पना करके उमा का परिवार, विशेषकर माता, अत्यंत दुःखी है। क्योंकि नारदजी कह गए कि  योगी, जटाधारी, निष्कामहृदय, नंगा और अमङ्गल वेषवाला, ऐसा पति इसको मिलेगा। इसके हाथ में ऐसी ही रेखा पड़ी है। और नारद के वचन कभी मिथ्या नही होते।  संसार में जिनका कोई नही उन अनाथों के नाथ तो स्वयं शिव है लेकिन शिव का कौन है? वैरागी शिव को विवाह के लिए कौन मनाएगा? समाज में ऐसे एकाकी लोगों का एक बेस्ट फ्रेंड होता है जो इन सब मामलों में माता-पिता या परिवार की भूमिका निभाता है। हर के विवाह में यह रोल स्वयं हरि निभा रहे हैं। उन्होंने शिव को समाधि से जगाया और उनसे यह वरदान लिया कि शिव उमा से विवाह जरूर करेंगें। ध्यान देने योग्य बात है कि ईश्वर किसी की साधना से प्रसन्न होकर वर देते हैं लेकिन महाकाल के सामने प्रकट होकर नारायण स्वयं वर मांग रहे है हैं। ऐसे औढरदानी है शिव, विवाह के लिए तैयार हो गए। अब नारायण अपने प्रिय मित्र के विवाह में पूरा आनंद लेने का मन बना चुकें हैं । महाकाल

भस्मासुर

अपनी ही दुनिया में पैठे हुए मैट्रो में बैठे हुए कानों को हेडफ़ोन से झाँपकर बगल वाले से दूरियाँ नापकर हम सुन रहे संगीत उस असफलता का जिसमें घिर गया है मनुष्य एक श्रेष्ठताबोध से या  किसी कुंठाजनित अवरोध से। फेसबुक खोल कर तेजी से स्क्रॉल कर देख रहें उस खबर पर प्रतिक्रिया क्या है। हमने और किया क्या है? आशंकाओं से डर-डर कर दृष्टि जाती प्रत्येक खबर पर। कोई घबराए, डर जाए,  रोते हुए अपने घर जाए या मर जाए, हम तठस्थ। काम में व्यस्त अपनी उपलब्धियों पर खुश ये मनहूस  हमारी भस्मासुरी अहंकारी सोच  जला कर राख कर देती है उस एक संवेदना को  जो दूसरों में भी जिजीविषा से भरा अपने जैसा ही एक मनुष्य देख सके।