आइये आज एक यायावर की आँखों से प्रकृति को देखते हैं। अज्ञेय अपनी प्रयोगशीलता के लिये सुविख्यात हैं। वे जितना महत्व भाषा को देते हैं उतना ही महत्व शब्दों की मितव्ययिता को भी देते हैं। उनका मानना है कि रचना में एक भी शब्द व्यर्थ में शामिल न हो। कम शब्दों में भी बड़ा अर्थ भरने की विशेषता उन्हें आधुनिक कवि और उससे भी ज्यादा सजग कवि के रूप में स्थापित करती है। उनकी इसी विशेषता को ध्यान में रखते हुए हम उनकी कविता 'दुर्वाचल' का विश्लेषण करेंगें।
हमारा यात्री (अज्ञेय) एक ऐसे पर्वतीय स्थल पर है जिस गिरि का पार्श्व नम्र है, कोमल है। कोमलता का पर्वतों के साथ संयोग अज्ञेय जैसा सजग यात्री ही कर सकता है।
यहाँ चीड़ के वृक्षों की ऊपर जाती पंक्ति ऐसी लग रही है मानो उमंगें डगर चढ़ रही हो।
नीचे की ओर बिछी नदी (बहती नही) अर्थात एक ठहराव है और यह ठहराव गतिहीनता की सूचक नही बल्कि एक शांति का प्रतीक है।
और फिर अद्भुत बिम्ब का प्रयोग - नदी ऐसी लग रही है मानो एक 'दर्द की रेखा' खिंची हो, जैसे दर्द ने मूर्त रूप धारण कर लिया हो। इसे कहते हैं थोड़े से शब्दों में बड़ा अर्थ भरना।
'विहग-शिशु मौन नीड़ों में'
अर्थात इस सुंदर प्रकृति में जीवन भी सांसे ले रहा है किंतु मौन।
'मैंने आँख भर देखा'
जिसे देख यात्री प्रेम से, करुणा से, वात्सल्य से, आश्चर्य से भर गया है।
और फिर,
"दिया मन को दिलासा-पुन: आऊँगा।"
भले ही बरस-दिन-अनगिन युगों के बाद !
एक यात्री केवल स्वयं को दिलासा ही दे सकता है कि वह फिर से लौट कर आएगा लेकिन उसे क्या पता कि वह दिनों या वर्षों में आएगा या अनगिनत युगों के बीत जाने के बाद।
तभी यात्री के पुनः आने के संकल्प की साक्षी बनकर दामिनी यूँ प्रकट हुई मानो क्षितिज ने अपनी पलक सी खोली हो और फिर तमककर दामिनी ने यात्री से कहा -
'अरे यायावर! रहेगा याद?'
यह अज्ञेय की सर्जनात्मकता का एक छोटा सा उदाहरण था। उनकी दृष्टि में प्रकृति कैसी सजीव हो उठी और आपने ध्यान दिया, केवल यात्री ही प्रकृति को नही निहारते हैं, प्रकृति भी यात्रियों को निहारती है। वह भी प्रतीक्षा करती है उस यायावर का जिसने वादा किया है लौट कर आने का।
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