निर्वासित राजकुमार दुर्गम वनों में अपनी स्त्री की तलाश में दर-दर ठोकरें खाते हुए अनुज सहित भटक रहे हैं। तभी मरणासन्न जटायु उन्हें सीता की सूचना देते हैं कि किस प्रकार लंका का अधिपति उन्हें बलपूर्वक हरण कर ले जा रहा था। निश्चित ही यह सूचना राम के लिये वज्रपात के समान रही होगी। किंतु राम वह मनुष्य है जिनकी प्रतिष्ठा पूरी मानवजाति के लिये एक प्रतिमान गढ़ने वाली है। राम यह जानते हैं कि उनकी एक-एक प्रतिक्रिया सभी निर्बल, असहाय लोगों के लिए जीवन की कठिनाइयों में मार्ग प्रशस्त करने वाले उदाहरण बन कर दुहराए जाएंगे। तब प्राण त्यागते हुए जटायु के सामने मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम एक संकल्प लेते हैं:
सीता हरन तात जनि
कहहु पिता सन जाइ ।
जौं मैं राम त कुल सहित
कहिहि दसानन आइ ।।
【हे तात! सीताहरणकी बात आप जाकर पिताजीसे न कहियेगा। यदि मैं राम हूँ तो दशमुख रावण कुटुम्बसहित वहाँ आकर स्वयं ही कहेगा।】
ध्यान देने योग्य बात है कि जिस समय राम ने यह संकल्प लिया उस समय न तो उनके सामने वानरों की कोई सेना थी और न ही महापराक्रमी हनुमान जैसा कोई सहायक; था तो केवल यह आत्मविश्वास कि यदि मैं सच में "राम" हूँ तो रावण स्वयं मेरे पिता के पास जाकर अपनी करतूत कहेगा।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की पारखी दृष्टि ने इस दोहे की अर्थगर्भित अभिव्यक्ति को पहचाना और अपने लेख में इसे शामिल कर सहृदयों का ध्यान आकर्षित किया। उन्ही के शब्दों में-
यह 'पर्यायोक्ति' राम की धीरता और सुशीलता की व्यंजना में कैसी सहायता करती हुई बैठी है। राम सीताहरण के समाचार द्वारा अपने पिता को स्वर्ग में भी दुखी करना नहीं चाहते। साथ ही अपनी वीरता भी अत्यन्त संकोच और शिष्टता के साथ प्रकट करते हैं। 'राम' कैसा अर्थान्तरसंक्रमित पद है।
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